दिलीप साहनी भी एक ऐसे ही खेतीहर मजदूर के बेटे हैं जो मखाना के खेतों में काम करते हैं। परंतु उसका सपना इस खेती के कार्यक्षेत्र से समझौता कर लेने का नहीं था। उसका सपना शिक्षा पाने का था और स्वयं को सिद्ध करने का था। उसके इस दृढ़ता के आगे कोई आर्थिक अड़चन भी न टिक सकी और उसने अपने लिए देश की सीमाओं का भी विस्तार किया।
अपने परिवार के प्रोत्साहन और संबल से यह 23 वर्षीय श्रमिक एक मैकेनिकल इंजीनियर बन गया। दिलीप का पूरा परिवार पुर्णिया के हरदा में मखाना उद्योग में मजदूरी करता है और सामूहिक रुप से महीने के 2000 से 3000 रुपये ही कमा पाता है।
इस परिवार को जुलाई से जनवरी माह तक पुर्णिया में मखाना की खेती से लेकर कटाई और प्रसंस्करण तक रहना पड़ता है।
दिलीप के गाँव का नाम अंतौर है। इस गाँव से कभी किसी ने 10वीं की परिक्षा भी नहीं पास की थी। 2011 में दिलीप ने अपने गाँव के लिए इतिहास रचा और जे.एन.जे.वी. स्कूल नवादा, बेनीपुर से प्रथम श्रेणी में उतीर्ण हुआ।
अतंतोगत्वा उन्होंने 12वीं की भी परिक्षा बहेरा काॅलेज, दरभंगा से 2013 में पास किया। “स्कूल की पढ़ाई मेरे लिए आसान नहीं था। मुझे मखाना फसल के कटाई सत्र के लिए बारंबार पुर्णिया आना पड़ता था जिससे कुछ पैसे कमा सकूँ”, दिलीप ने बताया।
2013 में दिलीप को मिलेनियम ग्रुप आॅफ इंस्टीट्यूट से इंजीनियरिंग का प्रस्ताव आया। यह भोपाल का एक निजी तकनीकी काॅलेज है। इसके लिए उसने सभी बैंकों में जा कर एजुकेशन लोन के लिए किस्मत आजमाया पर कहीं भी उनके आवेदन को स्वीकृति नहीं मिल पाई।
यह वह वक़्त था जब दिलीप के पिता लालटुन साहनी गैर-फसल कटाई मौसम के दरम्यान नेपाल जाकर आईसक्रीम बेचने लगे जिससे की वे अपने बच्चे की पढ़ाई में मदद कर सकें। दिलीप का छोटा भाई, विजय भी मदद को आगे आया जब सभी बैंकों ने मुँह फेर लिया था। विजय चेन्नई जा कर टाईलस की एक ईकाई में काम करने लगा ताकी वह अपने भाई की काॅलेज की डिग्री के लिए आर्थिक निधि की व्यवस्था कर सके।
छुट्टीयाँ फिर से एक आशय होती थी दिलीप के लिए कि वो अपने परिवार के साथ पुनः खेत के काम पर लग जाए। “यदि मेरे पिता और भाई ने पैसे से मुझे सहयोग न दिया होता तो मैं कभी इंजिनियर नहीं बन पाता”, दिलीप में हिन्दुस्तान टाईम्स के एक साक्षात्कार में कहा।
जिस दरम्यान दिलीप शिक्षा प्राप्ति के मुहिम पर थे गाँव के कई लोग उन्हें हतोत्साहित करते थे। वे कहते थे कि वह गलत दिशा में जा रहा है और पढ़ाई के प्रति उसका सम्मोहन उसे कुछ मदद नहीं कर पाएगा। पर अपने लक्ष्य का संकल्प लिए व्यक्ति को सिर्फ अपना लक्ष्य दिखाई पड़ता है रास्ते के बीच आने वाले कठिनाइयां नहीं दिखती। दिलीप जो पाना चाहते थे उसके लिए वे पूरी तरह से एकाग्रचित थे।
2016 में दिलीप को राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर मध्य प्रदेश सरकार की ओर से टाॅपर्स का अवार्ड भी प्राप्त किया। दिलीप कहते हैं, “मेरे और मेरे परिवार के लिए मेरा इंजीनियर बनने का सपना पूरा करना कभी भी आसान नहीं रहा, मगर उन्होंने इसमें सहयोग के लिए सब कुछ किया।”
समय के साथ उनके परिश्रम का फल भी उन्हें प्राप्त हुआ। सितम्बर 2017, जब उन्हें इस्पात निर्माण की एक अग्रणी कंपनी, द संगम ग्रुप की ओर से काम का पेशकश प्राप्त हुआ और पदस्थापन सिंगापुर में मिला। उन्हें 8 लाख का सालाना पैकेज मिला जो शायद वर्षों तक मखाना कटाई में लगे रहने के बाद भी प्राप्त होना मुश्किल है।
इस पूरी यात्रा में पुर्णिया पुलिस अधीक्षक निशांत तिवारी, दिलीप के अभिप्रेरणा रहे। जिन्होंने गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए ‘मेरी पाठशाला’ पहल की शुरुआत की थी।
“मैं उठना चाहता हूँ, दौड़ना चाहता हूँ, गिरना भी चाहता हूँ… बस रुकना नहीं चाहता।” यह एक संवाद है जो दिलीप साहनी के संघर्ष को बयान करता हुआ प्रतीत होता है। जिस वृति से बाहर आने का कोई सोच भी नहीं पा रहा था वहाँ से निकल कर दिलीप ने सफलता का शिखर प्राप्त किया। दिलीप एक प्रेरणा हैं उन लाखों वंचितों के लिए जो आर्थिक कुचक्र के हताशा में फँस कर रह जाते हैं।
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